पौराणिक दृष्टि से लिंग के प्रथम प्रादुर्भाव का उल्लेख शिव पुराण और लिंग पुराण में दिया गया है और पुराणों की रचना ईसा पूर्व छठी सदी से लेकर ईसा के दसवीं सदी तक हुई है।
यद्यपि लिंग का प्रादुर्भाव एवं पूजा प्राचीन काल से होती आ रही है। हड़प्पा सभ्यता से प्राप्त लिंगयुक्त मुहरें और ऋग्वेद में उपलब्ध साक्ष्य जिसमें यहां के मूल वासियों को शिश्न पूजक अर्थात लिंग पूजक कह कर संबोधित किया गया है। इसके प्रबल साक्ष्य हैं कि लिंगोपासना भारतवर्ष में पुराण काल के पूर्व से प्रचलित थी।
पहले लिंग शब्द को समझ लेना आवश्यक होगा।
यह शब्द संस्कृत का है जिसका अर्थ होता है चिन्ह या पहचान। लिंग के कई और अर्थ हो सकते हैं जैसे हिंदी व्याकरण में इसे पुलिंग और स्त्रीलिंग ,नपुंसक लिंग में बांटा गया है।
शिव लिंग को अब समझना है। शिव लिंग आकाश है और धरती उसकी पीठिका। सभी देवी देवता यहीं रहते हैं। सृष्टि तो लयबद्ध है। वो बनेगी,बिखरेगी और यह काम परमात्मा का है जो स्वयं महादेव हैं, महेश्वर हैं। सृष्टि का विधान ही यही है। सम्पूर्ण सृष्टि शिव की है। शिव का प्रतीक है-यह सम्पूर्ण सृष्टि। दही दूध से बनता है तो माना जा सकता है कि दही दूध का प्रतीक है। शिव लिंग शिव का प्रतीक है,उसकी पहचान है। न कि किसी पुरुष का लिंग या किसी पुरुष देवता का।
रुद्र यानी शिव को वेदों और परवर्ती कुछ ग्रंथों ने भी शिश्न देवः कहा है। वेद तो वैसे भी शिव को अनार्यों का देवता मानते हैं। ऐसे में उन्होंने शिव को शिश्न देव यानी लिंग का देवता कह दिया। हमें ज्ञात है कि वेदों की भाषा संस्कृत है जहां लिंग का अर्थ चिन्ह या प्रतीक है। ऐसे में यह माना जा सकता है कि जानबूझ कर उन्हें शिश्न देवः कहा गया। सर्वाधिक पुरानी संस्कृति और आदि देवता को हेय माना गया। हमें अनार्य कहा गया।
शिवलिंग” शब्द बहुत गहरा है. इसमें शिव के अनंत अस्तित्व की परिभाषा दर्शित है। शून्य, आकाश, अनन्त, ब्रह्माण्ड और निराकार परमपुरुष का प्रतीक होने से शिव लिंग शब्द को प्रयोग में लाया जाता है।
शिव लिंग पुरुष और प्रकृति के मिलन का द्योतक है। शिवलिंग शब्द में भगवान शिव और देवी शक्ति अर्थात मां पार्वती के आदि-आनादी एकल रूप का चित्रण भी है. इसमें पुरुष और प्रकृति की समानता का प्रतीक भी जिसे ऐसे कह सकते हैं कि इस संसार में न केवल पुरुष का और न केवल प्रकृति (स्त्री) का वर्चस्व है बल्कि दोनों का ही समान अस्तित्व है।
आशय यह भी है कि शिवलिंग के रूप में योनि और लिंग प्रजनन शक्ति के प्रतीक हैं। यह प्रतीक सृष्टि सृजन का द्योतक भी है।
स्कंद पुराण में उल्लेख आया है कि आकाश अर्थात महाशून्य जिसमें समस्त ब्रह्मांड है, वह शिवलिंग है और पृथ्वी उसका आधार यानी पीठिका है।
“आकाशं लिंगमित्याहु: पृथ्वी तस्य पीठिका। आलय: सर्व देवानां लयनार्लिंग मुच्यते।।”
अर्थात आकाश विस्तृत महाशून्य है जिसमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड समाहित है। लिंगरूप है और पृथ्वी उसकी पीठिका (आधार) है।पुराणकार ने आकाश को लिंग का रुप कहा है, इसमें सभी देवताओं का निवास माना है।
“तुम्ही जनमल तुम्ही समौल
सागर लहरी समाना।”
जैसे सागर में उठी लहरें पुनः सागर में समा जाती हैं। ठीक इसी प्रकार प्रलय काल में समस्त सृष्टि तथा देवतागण आदि इसी लिंग मे समाविष्ट हो जाते हैं।
शिवपुराण में शिवलिंग को चैतन्यमय शिव और लिंगपीठ को अंबामय बताया गया है।
साथ ही लिंग पुराण में भी लिंग को शिव और उसके आधार को शिव-पत्नी बताया गया है। इसी से यह मान्यता प्रचलन में आई कि शिव-लिंग उमा और महेश्वर के प्रतीक स्वरूप हैं। शिव और शक्ति दोनों का संयोगात्मक प्रतीक ही शिवलिंग है। वस्तुतः शिवलिंग सृष्टि के रहस्य को उद्द्घाटित करता है।
शिवलिंग के रूप में जिस मूर्ति की पूजा की जाती है वह व्यक्त एवं अव्यक्त प्रकृति की प्रतिमा है।
सौजन्य :- आखर प्रकाशन, दीघा, पटना।
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