
रांची:- यह जगत परमात्मा की इच्छा से सृष्ट है। मांडूक्योपनिषद् का कथन है – इच्छा मात्र प्रभो सृष्टि। उस इच्छामय की इच्छा से प्रारंभ होती है लीलानंद की लीला। चलता है कालचक्र और सृष्टि के विकास क्रम में सृष्ट होता है मनुष्य। परमात्मा इच्छा करने को स्वतंत्र हैं और वे ही कर्त्ता हैं। मनुष्य भी इच्छाएं करता है परंतु परमात्मा की इच्छा से मनुष्य की इच्छा भिन्न है। परमात्मा की इच्छा सृष्टि की नियामक शक्ति है जबकि मनुष्य की इच्छा का फलाफल अनिश्चित है। जगत में रहने की इच्छा के बावजूद मनुष्य मृत्यु को उपलब्ध होता है। सुख, आराम एवं स्वस्थ रहने की चाहत के बाद भी वह दुख झेलता है और अस्वस्थ होता है। वह जगत में आने को विवश है और जगत से जाने को भी। मनुष्य भी कर्त्ता है। सीमित दायरे में वह भी सृजन और संहार करता है। यह खोज मनुष्य की मर्यादा के लिए आवश्यक है कि कौन उसे अनचाहे दुख झेलने को मजबूर करता है, क्यों जगत में ले आता है और फिर इच्छानुसार जगत में रहने भी नहीं देता।
इच्छा की पूर्ति में सुख है। मनुष्य बार-बार इच्छाएं करता है। एक इच्छा की पूर्ति होते ही दूसरी इच्छा पनप जाती है। शास्त्र कहते हैं कि मनुष्य की इच्छा का उद्गम परमात्मा की इच्छा से है। मानव की रक्तबीज की तरह उत्पन्न हो रही इच्छाएं उस परमात्मा की इच्छा से जुड़ी हैं और जब तक मनुष्य परमात्मा को पाने की इच्छा नहीं करता, इच्छोत्पत्ति का क्रम चलता रहेगा। जहां इच्छा करने की विवशता नहीं है, वहां आनंद है। आज मनुष्य मात्र जगत की इच्छा करता है। जगत का सुख पाना मनुष्य का उद्देश्य हो गया है। साधना एवं पूजादि भी जागतिक सुख के माध्यम होकर रह गए हैं। मन को अगर मात्र भौतिक सुख का चिंतन दिया जाए तो मानसिक तरंगें स्थूल होंगी। वैयक्तिक सुख का चिंतन व्यक्ति की चिंतन धारा को संकीर्ण करता है। वसुधैव कुटुम्बकम् की परिकल्पना समाप्त हो जाएगी। अपने लिए तो मानवेतर प्राणी भी जीते हैं। मन जिस प्रकार भौतिक चितंन से स्थूल होता है उसी प्रकार सूक्ष्म अथवा विराट चिंतन उसे विशालता प्रदान करता है। वह परहित तथा जगहित के लिए सोचता है। विश्व के साधु संतों का जीवन इसका स्पष्ट उदाहरण है।
मान्य है कि गुरु ही आध्यात्मिक आलोक के विकास के प्रेरणा स्रोत रहे हैं। मनुष्य की जागतिक इच्छाओं को परमात्मा को पाने की इच्छा में परिणत करने का कार्य किया है गुरुओं ने। इन गुरुओं की शृंखला में शिव आदिगुरु हैं। तंत्र साहित्य मूलतः शिव पार्वती संवाद है, जिसमें शिव गुरु हैं और भवानी शिष्या। शिव तंत्र के प्रणेता तथा सभी आध्यात्मिक विधाओं के परमज्ञाता माने गए हैं। उन्हें सभी गुरुओं का गुरु कहा गया है।
शैवागम के ग्रंथों में ‘वामदेवं महादेवं लोकनाथं जगद्गुरुम्’ के विषय में उल्लिखित है कि महादेव आचारेन्द्र हैं और उनका मौन ही शिष्य के मन में परब्रह्म तत्त्व को प्रकट करता है।
शिव की परिकल्पना ईश्वर, जगत गुरु, कपालेश्वर, अघोरेश्वर आदि विभिन्न रूपों में की गई है। वे सर्वमय तथा सर्वतंत्र स्वरूप हैं। उनका अर्धनारीश्वर स्वरूप पुरुष तथा प्रकृति के सम्मिलन का प्रतीक है। शिव को निराकार ब्रह्म तथा जगत की उत्पत्ति, स्थिति एवं लय का आदिकारण माना गया है। साकार स्वरूप में शिव भस्ममंडित हैं, व्याघ्र चर्म उनका परिधान है, मुंडमाल एवं सर्प उनके आभूषण हैं। शिव के निराकार और साकार स्वरूप में स्पष्ट विभेद नहीं किया गया है। समुद्र मंथन से प्राप्त कालकूट विष देवताओं के लिए मृत्यु का धारक था किंतु शिव ने सर्वहित में विषपान किया। उनकी वेशभूषा डरावनी है किंतु वे शंकर हैं। पहनने को वस्त्र नहीं फिर भी सभी संपत्तियों के जनक हैं। रहने को अच्छा आवास नहीं है तब भी तीनों लोकों के स्वामी हैं। उमापति हैं तो निःसंगी भी, महाकाल हैं तो मृत्युंजय भी। शिव का जीवन अति सामान्य है। वैभव और विलासिता से दूर शिव साधुता की पहली तथा अंतिम पहचान हैं। शिव सुरों से पूजित हैं तो असुरों से भी। देवाधिदेव हैं किंतु उनका जीवन चित्रण देवताओं से भिन्न है। शिव का यह स्वरूप दर्शाता है कि न्यूनतम व्यवस्था में ही सुख तथा शांति है और सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी शिव हो सकता है।
शिव ईश्वर के रूप में विश्वमूर्त्ति एवं आनन्दमूर्त्ति हैं। सम भाव से चराचर जगत में विद्यमान हैं। भक्त अभक्त, देवता दानव, चिकित्सक रोगी एवं जन्म मृत्यु में अक्षुण रूप से विराजते हुए वे भावातीत सत्ता हैं। शिव अपने सगुण स्वरूप में भावसत्ता हैं। भक्त उनसे मनोवांछित फल पाते हैं और शिष्य परम ज्ञान। शिव का साधुवेश शिष्य को भी कम से कम व्यवस्था में रहने का आचार प्रस्तुत करता है। योगी भर्तृहरि ने कहा था- भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः, तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा। साधुता कहती है ‘रहना नहीं देश विराना है’ तो फिर जागतिक सुखों की ओर भाग दौड़ कैसी? शिव की सादगी, गुरुओं की एकमात्र संपत्ति उनकी लंगोटी, उनकी कथनी और करनी में समरूपता का द्योतक है। शिष्य आचरण से सीखता है, अतएव गुरु आचार्य होते हैं। शिव तो आचारेन्द्र हैं। शिव की पूजा कर अनेक ने अतुल धन वैभव प्राप्त किया और उन्हें गुरु मानकर अगस्त्य, दधीचि, मत्स्येंद्रनाथ आदि ने जन-जन को आध्यात्मिक आलोक दिया।
शिव के देवाधिदेव स्वरूप और आदिगुरु स्वरूप में विभेद किया जा सकता है। देवाधिदेव महादेव के रूप में शिव अवढ़रदानी हैं। दानी अपने दान में विवेक नहीं रखता। दान का फलाफल प्राप्तकर्त्ता के विवेक पर निर्भर है परंतु गुरु को पल प्रतिपल अपने विवेक से कार्य करना पड़ता है। गुरु भोग और मोक्ष अभिन्न रूप से देते हैं किंतु उनकी विवेकपूर्ण करुणा शिष्य के जीवन पथ में भोग को मोक्ष में बाधक नहीं बनने देती। एक शिक्षक जिस प्रकार बच्चे के मन के अनुकूल खेल की विधा से अध्यापन कार्य करता है और बच्चे में अध्ययन के प्रति अभिरुचि जागृत कर देता है, उसी प्रकार गुरु को शिष्य के स्वाभाविक जागतिक आकर्षण के साथ साथ शिव भाव जाग्रत करना होता है। मनुष्य में जागतिक आकर्षण का होना अनिवार्य है। गुरु शिष्य के मन में लौकिक आकर्षण को न्यून कर परमात्मा के प्रति प्रेम पैदा करते हैं। मन तो स्वयं तीव्रगामी है। गमन इसका स्वभाव है और गुरु कृपा से परमात्मा के प्रति प्रेम इसे शिवगामी बना देता है।
दक्षिण भारत के महान संत तिरुमूलर कहते हैं मेरे गुरु नंदी ने मुझसे कहा कि शिव स्वयं गुरु हैं। विदित है कि संत तिरुमूलर के गुरु नंदीश्वर थे। तिरूमन्तिरम् ग्रंथ में उल्लेख आया है कि वह परमात्मा जिसके जटाजूट लहरा रहे हैं और जो पावन गंगा को धारित किए हुए हैं; वे गुरु रूप में प्रकट होकर हमारे दुखों का अन्त करते हैं।
शिव का लोक प्रचलित सम्बोधन महादेव है। महादेव को महेश्वर कहा गया है एवं महेश्वर को महादेव।
तवतत्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वरः।
यादृशोऽसि महादेवः तादृशाय नमोनमः।।
हे महेश्वर! आपको जानना, समझना और पहचानना हमारी सीमा के बाहर है। हे महादेव! आप जैसे भी हैं या जैसे भी दिखते हैं, आपको बारम्बार प्रणाम है।
उक्त श्लोक की प्रथम पंक्ति में महेश्वर को संबोधित किया गया है और दूसरी ही पंक्ति में महादेव महेश्वर की समस्त शक्तियों का सर्वश्रेष्ठ प्रकटीकरण हैं। सीधे शब्दों में महादेव ही महेश्वर हैं।