शिव आध्यात्मिक सभी विधाओं के परम ज्ञाता हैं। तंत्र के प्रणेता हैं, योगेश्वर हैं, महाकापालिक तथा महाभैरव हैं। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येंद्रनाथ का शिव शिष्य होना हाल की ऐतिहासिक प्रमाणिकता है जिन्होंने चौसठ योगिनीयों की स्थापना की। सर्वश्री कीनाराम, तैलंग स्वामी, रामकृष्ण परमहंस आदि आध्यात्मिक विभूतियों के बाद आज हम पाते हैं कि गुरु पद मुख्यत: भौतिक सुख एवं सम्मान का साधन हो गया है। भगवान बुद्ध, महावीर से लेकर रामकृष्ण परमहंस तक सभी गुरु मूल रूप से आचार्य रहे। साधुता मन में ऐसी थी कि आचरण में आ गई। रहन-सहन में आ गई। सामान्य से अति सामान्य जीवन हो गया। आज कठिनता से कुछ गुरुओं का दैनिक जीवन हम सामान्य पाते हैं। ऐसा भी नहीं है कि बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में कोई नई आध्यात्मिक विधा पनपी है और साधना पूजा के नए सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है।
संत और गुरु में अंतर है। परमात्मा के कार्यक्षेत्र और गुरु के कार्य क्षेत्र में विभेद किया जा सकता है। परमात्मा समभाव में हैं। वे रोगी के रूप में बीमार होते हैं और चिकित्सक के रूप में चिकित्सा करते हैं। वे जीव में भी हैं और शिव में भी हैं,अंगुलीमाल में भी हैं तो बुद्ध में भी हैं। किसी संत की ऊंचाई मापना अत्यंत दुष्कर है, जबकि गुरु की पहचान उसका शिष्य होता है। चिकित्सक की पहचान रोगी होता है। दानी की पहचान याचक है, गुरु की गरिमा शिष्य के शिव होने पर निर्भर करती है। सचमुच शिष्य का शिव होना गुरु पद के अस्तित्व का कारण है।
आज का परिवेश अधिकांशत: पंच मकार में जी रहा है। साधना पूजा से दूर व्यक्ति भौतिकवाद की ओर भागा चला जा रहा है। ऐसी परिस्थिति में मात्र उपदेश सुनने से कामनाओं और वासनाओं का त्याग कठिन है। भौतिक सुख सुविधा की वर्जना कर साधना पूजा की ओर अग्रसर होना दुष्कर हो गया है। तंत्र वार्जनाओं की बात नहीं करता यह पंचमकारादि साधना पद्धतियों से स्वत: स्पष्ट है। तंत्र कहता है तृप्ति भोग में है। चित् वृत्ति निरोध: योग: इस काल में कठिन हो आया है।
किंतु तंत्र की विधा तो भोग में योग की बात कहती है। प्रवृत्ति से प्रवृत्ति के द्वारा ही निवृत्ति हो सकती है बशर्ते सही गुरु का मार्ग-निर्देशन प्राप्त हो। सही गुरु के अभाव में तो भोग पर रोक नही लगाना भोग के सागर में मनुष्य को डुबो देना होगा। यही कारण है कि सभी आध्यात्मिक विभूतियों के द्वारा गुरु को सर्वोच्च माना गया है। उन्हें परमात्मा से भी अधिक महत्व दिया गया है। कहा जाता है कि कोई भी गुरु शिव साम्राज्य के अधीन होता है। शिव सद्गुरुओ के भी गुरु हैं। गुरु की परिभाषा है कि वे शिष्य में शिव भाव का आवेश जगाते हैं। गुरु शिष्य को अपने जैसा बनाते हैं। सद्गुरु शिष्य को भोग और मोक्ष अभिन्न रूप से देते हैं। शिव को जगतगुरु, सभी गुरुओं का गुरु माना जाना अर्थहीन नहीं है। महज औपचारिकता नहीं है। अघोर पंथ के सिद्ध गुरु बाबा कीनाराम और योगीराज गोरखनाथ में व्यक्तिगत रूचियों के आधार पर विभेद है। किसी सद्गुरु के द्वारा आध्यात्मिक पराकाष्ठा पर पहुंचने हेतु गृहस्थ जीवन की वर्जना की गई तो किसी सद्गुरु के द्वारा सन्यास और गृहस्थ में कोई बंधन नहीं माना गया है। शिव गृहस्थ जीवन यापन करने वाले सिद्ध गुरुओं के भी गुरु हैं और अकेला जीवन जीने वाले सद्गुरुओ के भी गुरु हैं।