जगत की सृष्टि के मूल में है- इच्छा। इच्छामय की इच्छा से प्रारंभ होती है लीलानंद की लीला। चलता है कालचक्र और सृष्टि के विकास के क्रम में श्रृष्ट होता है मनुष्य। परमात्मा इच्छा करने को स्वतंत्र हैं और वे कर्ता हैं। मनुष्य भी कर्ता है, वह भी सृजन करता है और परमात्मा की तरह इच्छाएं करता है। यह और बात है कि मनुष्य की इच्छा जब इच्छा शक्ति में परिणत होती है तो वह मनोनुकूल कार्य करने का प्रयास करता है जबकि परमात्मा की इच्छा ही शक्ति है। जीव जन्म लेता है और मृत्यु को प्राप्त होता है। जगत में रहने की इच्छा के विपरीत मृत्यु उसे ले जाती है। सुख- आराम प्राप्त करने की चेष्टा में वह बीमार होता है, दुख झेलता है। अपेक्षित इच्छाओं की पूर्ति नहीं होती और आंशिक रूप से इच्छाओं की पूर्ति हो भी जाती है तो दूसरी इच्छा पनपने लगती है।  यह क्रम चलता ही रहता है। जब तक इच्छा पनपती रहेगी उसकी पूर्ति तक दुख पैदा होगा और उसकी पूर्ति या आंशिक पूर्ति के बाद दूसरी इच्छा जागेगी। कारण स्पष्ट है मनुष्य की इच्छा का मूल श्रोत परमात्मा की इच्छा है। जीव की यह रक्तबीज की तरह पनपने वाली इच्छा उस बृहत इच्छा का अंश है और जब तक यह इच्छा उस बृहत इच्छा में समाहित नहीं होती आनंद नहीं मिलेगा। आनंद का अर्थ है जहां इच्छा की विवशता नहीं है।

अपने जीवन में हम अनचाहे दुख झेलते हैं। असफलताओं से दुखी होते हैं। स्वस्थ रहने की चेष्टा के बावजूद भी बीमार होते हैं। जीवन अनचाहे समझौतों से बना घर दिखता है।
आखिर दृश्य या अदृश्य दुखों के घटनाक्रम के पीछे कौन कर्ता है? इसी शक्ति को अध्यात्मिक शक्ति हम कह सकते हैं।  यही है पारलौकिक शक्ति जो परमात्मा की नियामक शक्ति है।  यह शक्ति
मनुष्य के पास भी है जिसे बोधि कहते हैं। शारीरिक शक्ति से अधिक सूक्ष्म है मानसिक शक्ति और मानसिक शक्ति से अधिक व्यापक है अध्यात्मिक शक्ति।  मन को मात्र जगत के सुख और समृद्धि का चिंतन करने को छोड़ दें तो यह स्थूल होगा, मन संकुचित होगा। स्वार्थी होकर मात्र अपना सुख खोजेगा। आध्यात्मिक चिंतन या उस विराट का चिंतन मन को विशालता प्रदान करता है और वह परहित एवं मानव हित की सोचता है। भगवान बुद्ध, महावीर, ईशा, मोहम्मद, गुरु नानक, कबीर आदि का उदाहरण स्पष्ट है।
मान्य है कि गुरु ही आध्यात्मिक शक्ति के विकास के प्रेरणा श्रोत रहे हैं। परमात्मिक प्रकाश के आलोक स्तंभ का कार्य किया है गुरुओं ने।  इन गुरुओं की श्रृंखला में शिव प्रथम गुरु है, आदि गुरु हैं, जगतगुरु हैं। तंत्र साहित्य मूल रूप से शिव – पार्वती संवाद है जिसमें शिव गुरु हैं और भवानी हैं शिष्या।  शिव ही सभी पारलौकिक विधाओं की अंतिम प्रकाष्ठा हैं। आचरण में साधु हैं। वेश में भी साधु और भाव में भी साधु। उन्होंने सर्वहित में विषपान किया और  सामान्य जन के लिए जो मृत्यु के धारक हैं उन सभी को वशीभूत कर अपना आभूषण बनाया।  अति सामान्य जीवन ही शिव की कथा है।  वे गुरुओं के गुरु हैं।
   
जगद्गुरु नमस्तुभ्यं, शिवाय शिवदाय च।
योगीन्द्राणां च योगीन्द्र गुरुणां गुरवे नमः।।

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