राँची:- गुरु का शाब्दिक अर्थ अंधकार को दूर करने वाला माना गया है। गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश ही नहीं बल्कि परब्रह्म माना गया है। गुरु शिष्य को शिव बनाते हैं। शिष्यभाव को परमात्म भाव से युक्त करते हैं। शिष्य में शिव भाव का संचरण सुनिश्चित करने के कारण ही कोई गुरु होता है।
निर्वाण प्रकरण में कहा गया है कि जो दर्शन, वाणी और स्पर्श से शिष्य में शिव भाव का आवेश जगाते हैं वे गुरु हैं।
सद्गुरु मात्र अपनी कृपा से ही शिष्य को
शिव भाव से आवेशित कर देते हैं।
गुरु और सद्गुरु में अंतर करते हुए निर्वाण प्रकरण का कथन है कि गुरु शिष्य के कर्तामन में साधना,जप आदि की विभिन्न विधियों द्वारा शिव भाव का आवेश जगाते हैं। सद्गुरु को अपने शिष्य के मन में परमात्मा के प्रति प्रेम जगाने हेतु कोई क्रिया नहीं करनी पड़ती है। ये मात्र अपनी दया से ही शिष्य के मन में परमात्म प्रेम का अंकुरण कर देते हैं। सद्गुरु की दया ही जीव को शिव बनाती है। विश्वसार तन्त्र में कहा गया है गुरु कृपा ही मोक्ष का मूल है।
शिष्य का कर्तामन जो कर्म करके फल प्राप्त करने का अभ्यस्त है, वह दया की याचना नहीं करेगा। निश्चित रूप से सद्गुरु का आश्रय वही शिष्यमन लेगा जो साधना,जप,तप, योग आदि अनेक विधियों का अनुसरण करते हुए श्रांत एवं क्लांत हो जाता है और हारकर अपने गुरु से दया की याचना कर बैठता है। शिष्य मन जब दया मांगने की स्थिति में आता है तो वहीं उसे सद्गुरु का आश्रय उपलब्ध होता है।
सद्गुरुओं ने अपनी गुरु शिष्य परंपरा में शिष्य बनने के लिए भिन्न-भिन्न शर्ते रखी। कुछ लोगों ने यम-नियम पालन को अनिवार्य बताया, कुछ ने सुरा-सुंदरी को छोड़कर शिष्य बनने की बात कही तो कुछ लोगों ने मांस-मछली नहीं खाने की शर्त रखी और किसी ने गृहस्थ जीवन को छोड़कर वैरागी होने का को प्राथमिकता दी। निर्विवाद रूप से सद्गुरु के आश्रय में जाने के पूर्व सद्गुरु द्वारा लगाई गई शर्तों का अगर कोई व्यक्ति अनुपालन करने की क्षमता धारित करता है तो सद्गुरु की कृपा उसे शिवमय बनाएगी बनाती रही है। सद्गुरु अपनी विशेष शर्तों के अधीन आए शिष्य को शिव बनाते हैं।
जगतगुरु को सभी गुरुओं का गुरु कहा गया है। जगद्गुरु शिष्य बनाने के पूर्व किसी शर्त का विधान नहीं कर सकते। वे संपूर्ण जगत के गुरु हैं अतएव समस्त सृष्टि में जो कोई भी उन्हें अपना गुरु मानने की इच्छा संकल्पित करता है स्वतः उनका शिष्य होगा।
जगतगुरु सभी सद्गुरु एवं गुरुओं की शक्तियां धारित करते हैं। वे गुरु के रूप में शिष्य के कर्तामन को साधना, जप, तप आदि का अनुसरण कराते हैं। वे सद्गुरु रूप में साधना पथ के पथिक के श्रांत-क्लांत होने पर मात्र अपनी दया से ही उसे शिव बनाते हैं।
व्यक्ति भोग के अधीन जीता है। जगतगुरु स्वयं भोगाधिपति होने के कारण उसे भोगाधीश बनाते हैं तथा परमात्म भाव से अभिभूत करते हैं। संत ज्ञानदेव ने अमृतानुभव में कहा है कि जगत गुरु के रूप में विख्यात भगवान शंकर द्वारा उपदिष्ट ब्रह्मविद्या जो दया से निरंतर भीगी हुई है, वह संसार में सदा विजयिनी है हम उसे सदा नमस्कार करते हैं
“गुरुरित्याख्या लोकविद्या साक्षाद्विशांकरी ज्यात्यज्ञा नमस्तस्यै दयार्द्राय निरंतरम।।
संचयन : मौआर पंकज जीत सिंह
बहुत ही सुन्दर विचार भैया।
बहुत सुंदर विचार है
बहुत सरल शब्दों में गुरु की महत्ता एवं शिव ही गुरु हैं । इन तथ्य को रखा गया है, प्रणाम!